हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।॥ (ईशावास्य० 15)
हिंदी - हे प्रभो ! सत्य का मुख ( भी ) सोने जैसे पात्र से ढका हुआ है ,
इसलिए उस सत्य धर्म की प्राप्ति के लिए ( मन से माया - मोह ) को त्यागकर दें ,
तभी सत्य की प्राप्ति संभव है।
अणोरणीयान् महतो महीयान्
आत्यास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको
धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः ।। (कठ० 1.2.20)
हिन्दी -- जीव के ह्रदय रूपी गुफा में अणु से भी सूक्ष्म तथा महान से महान
यह आत्मा विधमान रहती है। उस परम सत्य के दर्शनमात्र से ( जीव )
शोकरहित होकर परमात्मा में एकाकार हो जाता है।
सत्यमेव जयते नानृत
सत्येन पन्था विततो देवयानः।
येनाक्रमन्त्यूषयो ह्याप्तकामा
यत्र तत् सत्यस्य परं निधानम् ॥ (मुण्डक० 3.2.8)
सत्य की ही जीत होती है , असत्य ( झूठ ) की नहीं। सत्य से ही ईश्वर
तक पहुँचने का मार्ग विस्तृत होती है , जिसके द्वारा ऋषिगण उस
परात्मा को प्राप्त करना चाहते हैं अर्थात अपने आत्मा कलयाण के लिए
जिस सत्य मार्ग का ऋषि अनुसरण करते हैं , वही सत्य ईश्वर तक पहुँचने का सच्चा मार्ग हैं।
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रे-
ऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः
परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।। (मुण्डक० 3.2.8)
जिस प्रकार बहती हुए समुन्द्र में मिलने के बाद असितत्वहीन हो जाती हैं
अर्थात अपना रूप त्यागकर समुंद्र बन जाती हैं , उस प्रकार विद्वान ईश्वर
के दिव्य प्रकाश में मिलते ही अपने नाम - रूप से मुक्त हो जाते हैं।
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्
आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति
नान्यः पन्था विद्यते ऽयनाय ।। (श्वेताश्वतर० 3.8)
वेद आदित्यवर्ण सूर्य के समान दिव्य रूप में विराजमान हैं। ज्ञानीजन उसका साक्षात्कार करके अर्थात उस प्रकाशपूर्ण दिव्य स्वरूप वेदरूप ब्रह्मा का ध्यान करके मृत्यु पर विजय प्राप्त करते हैं , ( क्योंकि ) इसके अतिरिक्त कोई अन्य रास्ता नहीं है।
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